
गोरखपुर उपचुनाव में भारतीय जनता पार्टी की हार बेहद दिलचस्प है। इस हार के कई सियासी कयास भी निकाले जा रहे हैं। वैसे तो गोरखपुर में ब्राह्मण बनाम ठाकुर की राजनीति की बिसात बहुत पहले से चली आ रही है। जिसका एक और जीता जागता उदाहरण आज फिर एक बार सामने आ गया। यहां दोनों ही धड़ों के लोग अपने तरीके से सियासी चाल चलते थे।
कहा जाता है कि पूर्वांचल में ब्राह्मण बनाम राजपूत की राजनीति की शुरुआत गोरखनाथ पीठ से हुई है। गोरखनाथ पीठ ठाकुरों की पीठ मानी जाती रही है। दिग्विजयनाथ, अवैद्यनाथ, आदित्यनाथ सभी जन्म से ठाकुर हैं। एक बात जरूर ध्यान रखने वाली है कि कोई भी पारिवारिक सदस्य महंत नहीं हो सकता है पर हां उसका ठाकुर होना जरूरी होता है। बताया जाता है कि स्व. महंथ दिग्विजय सिंह के प्रभाव को कम करने के लिए जिले में तैनात एक आईएएस ने हरिशंकर तिवारी को ब्राह्मणों के नेता के रूप में गोरखपुर में स्थापित किया। बाद में हरिशंकर तिवारी बहुत बड़े माफिया डान बने फिर राजनीति में आए और लोकतांत्रिक कांग्रेस बनाकर आजीवन मठ की राजनीति के समानांतर गोरखपुर में अपनी सत्ता संचालित करते रहे।
पूर्वांचल में राजपूतों की लीडरशिप गोरखनाथ मठ से हटकर कुछ समय के लिए दिवंगत माफिया डॉन वीरेंद्र शाही के हाथों में आ गई थी। हरिशंकर तिवारी और वीरेंद्र शाही के बीच वर्चस्व की जंग में कई दर्जन जानें गईं पर योगी अवैद्यनाथ इस पचड़े में कभी नहीं पड़े। अवैद्यनाथ के बाद योगी आदित्यनाथ ने गोरखपुर की खूनी राजनीति के बीच मठ का वजूद बचाए रखा। उन्होंने मठ पर लगे ठाकुरवादी ठप्पे को कम करने के काफी प्रयास किए और कुछ हद तक सफल भी रहे।
90 के दशक में योगी आदित्यनाथ के हाथ में मठ की कमान आई। योगी ने ‘मठ’ की ताकत कई गुणा बढ़ाई। उनकी हिंदू युवा वाहिनी आसपास के कई जिलों में सक्रिय हुई। इसी बीच साल 1998 में माफिया डॉन श्रीप्रकाश शुक्ला का एनकाउंटर कर दिया गया, जिसे ब्राह्मण क्षत्रप कहा जाता था।
योगी के मुख्यमंत्री बनते ही यूपी में सबसे ज्यादा नाराजगी ब्राह्मणों में थी। यह बात केंद्रीय नेतृत्व तक पहुंची। इसके बाद मोदी और शाह ने डैमेज कंट्रोल के लिए अपने तरफ से कई कोशिशें की, जिसमें महेंद्र पांडेय को यूपी बीजेपी का अध्यक्ष बनाना भी शामिल है।
बीजेपी नेतृत्व पूर्वांचल में ठाकुर बनाम ब्राह्मण से भली भांति परिचित हो चुका था। इसलिए योगी की सीट पर टिकट देने के लिए किसी ब्राह्मण चेहरे की तलाश थी, ताकि यहां भी संतुलन बनाया जा सके। इसी के चलते उपेंद्र दत्त शुक्ल को उम्मीदवार बनाया गया
लेकिन सूत्र बताते हैं कि सीएम योगी आदित्यनाथ कतई नहीं चाहते थे कि गोरखपुर का नेतृत्व ब्राह्मणों के हाथ में जाए। योगी के सामने अपनी सीट बचाने से ज्यादा अहम था गोरखपुर में अपने ‘मठ’ की ताकत को बचाना।
इसके बावजूद उपेंद्र दत्त शुक्ल को गोरखपुर संसदीय क्षेत्र से उम्मीदवार घोषित कर दिया गया। चूंकि आदेश अमित शाह का था, तो इसके सीधे विरोध में जाने की हिम्मत किसी में नहीं थी। लेकिन आलम ये रहा कि बूथ पर बीजेपी के एजेंट तक मौजूद नहीं थे। इसके उलट सपा और बसपा के समर्थक जोश से लगे हुए थे, जिसका परिणाम आज सबके सामने है।